मीरा बाई

कृष्ण प्रेम और भक्ति की महान साधिका

मीरा बाई

कृष्ण प्रेम और भक्ति की महान साधिका

मीरा बाई
  • जन्म: 1498, कुम्भलगढ़ (राजस्थान)
  • भक्ति परंपरा: कृष्ण भक्ति
  • जीवन संदेश: "प्रेम ही ईश्वर तक का मार्ग है"
  • प्रसिद्धि: भक्तिकाल की अमर कवयित्री

मीरा बाई (1498–1547) भक्ति आंदोलन की महान संत, कवयित्री और कृष्ण भक्त थीं। वे राजपूताना के मेवाड़ राजघराने से थीं, परंतु उनका हृदय बचपन से ही श्रीकृष्ण की भक्ति में लगा हुआ था। उन्होंने सामाजिक बंधनों को तोड़ते हुए अपनी पूरी जीवन यात्रा कृष्ण प्रेम और भक्ति को समर्पित कर दी।

जीवन परिचय

मीरा बाई का जन्म राजस्थान के कुम्भलगढ़ में हुआ था। उनका विवाह मेवाड़ के राजा राणा सांगा के पुत्र भोजराज से हुआ। विवाह के बाद भी उनका मन सांसारिक जीवन से विरक्त रहा और वे कृष्ण भक्ति में लीन रहीं, जो समाज और परिवार को अस्वीकार्य था। अनेक कठिनाइयों और विरोध का सामना करने के बाद भी मीरा अपने आध्यात्मिक मार्ग पर दृढ़ रहीं।

भक्ति और समर्पण

मीरा बाई ने भगवान कृष्ण को अपना पति, मित्र और आराध्य मान लिया था। उनकी भक्ति शुद्ध, सरल और प्रेमपूर्ण थी। वे कहती थीं: "मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई"
उनकी भक्ति किसी नियम या कर्मकांड पर निर्भर नहीं थी, बल्कि प्रेम और surrender पर आधारित थी।

काव्य रचनाएँ

मीरा बाई ने भक्ति गीतों और पदों की रचना की जो आज भी गाए जाते हैं। उनके प्रमुख भजन हैं:

  • "पग घुंघरू बांध मीरा नाची रे"
  • "मैं तो सांवरिया के रंग में"
  • "चरण कमल बिनु देवे मोको नाहीं शांति"

समाज पर प्रभाव

उन्होंने सिद्ध किया कि भक्ति किसी भी सामाजिक बंधन में नहीं बंधी है। जाति, लिंग और सामाजिक स्थिति से ऊपर उठकर मीरा ने दिखाया कि सच्चा प्रेम और आस्था ही ईश्वर तक पहुँचाने का मार्ग है।

निधन

मीरा बाई का अंतिम समय द्वारका या वृंदावन में गुज़रा, ऐसा माना जाता है। कहा जाता है कि वे अंत में कृष्ण की मूर्ति में लीन होकर दिव्य प्रेम में समा गईं।

मीरा बाई का जीवन भक्ति, प्रेम और साहस का प्रतीक है। वह आज भी करोड़ों भक्तों को प्रेरणा देती हैं।