कर्णछेदन संस्कार भारतीय संस्कृति में एक महत्वपूर्ण संस्कार है, जो शिशु के कान छेदन (ईयर पियर्सिंग) के रूप में किया जाता है। इसे कर्णवेदन या कर्णछेदन भी कहा जाता है। इस संस्कार के द्वारा शिशु के कानों में बाल्यकाल में छेद किए जाते हैं और उसे झुमके या बालियों से सजाया जाता है। यह संस्कार शिशु के जीवन में एक शुभ शुरुआत और अच्छे स्वास्थ्य, सुख और समृद्धि की कामना का प्रतीक होता है।
कर्णछेदन संस्कार का उद्देश्य
- शारीरिक स्वास्थ्य और सुरक्षा यह संस्कार शिशु के स्वास्थ्य को बढ़ावा देने के लिए किया जाता है, क्योंकि कान छेदन से शरीर में रक्त संचार और इंद्रिय संवेदनाओं को उत्तेजना मिलती है।
- धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व कर्णछेदन संस्कार को धार्मिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण माना जाता है, क्योंकि यह एक तरह से शिशु को संस्कारित करने का माध्यम है।
- सौंदर्य और सजावट कानों में बालियाँ पहनने से शिशु की सुंदरता बढ़ती है और यह एक पारंपरिक सजावट का हिस्सा है।
- आध्यात्मिक महत्व यह संस्कार शिशु को धर्म और संस्कृति से जोड़ने और आशीर्वाद देने का अवसर प्रदान करता है।
- संस्कार का समय कर्णछेदन संस्कार शिशु के जन्म के तीसरे, पांचवे या सातवे महीने में किया जाता है, हालांकि यह समय पारिवारिक परंपराओं और स्थानिक मान्यताओं के आधार पर भिन्न हो सकता है। कुछ जगहों पर यह संस्कार शिशु के पहले वर्ष में भी किया जाता है।